बाबरी मस्जिद की तड़प भरी याद—6 दिसंबर को खामोशी और दुआ के साथ गुज़रेगा दिन

बाबरी मस्जिद की तड़प भरी याद—6 दिसंबर को खामोशी और दुआ के साथ गुज़रेगा दिन
रेयाज अहमद – पत्रकार
6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद की शहादत की याद में मुस्लिम समाज गम और खामोशी के साथ “यौमे-ग़म” मनाता है। 1992 में अयोध्या स्थित 16वीं सदी की यह मस्जिद ढहा दी गई थी। यह घटना भारतीय इतिहास की सबसे संवेदनशील घटनाओं में मानी जाती है और इसका प्रभाव सामाजिक, राजनीतिक व न्यायिक स्तरों पर लंबे समय तक देखा गया। 6 दिसंबर का पूरा दिन सादगी, दुआ और खामोशी के साथ गुजरता है।
बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास कई दशकों तक अदालतों और राजनीतिक मंचों पर चलता रहा। 1980 और 1990 के दशक में यह विषय राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बन गया। विभिन्न संगठनों और दलों के अभियानों ने इसे जन-आंदोलन का रूप दिया, जिसके चलते यह मामला आम जनमानस की बहस का हिस्सा बन गया। 1992 की घटना के बाद देश के कई हिस्सों में तनाव की स्थिति पैदा हुई और वर्षों तक अलग-अलग राजनीतिक व सामाजिक स्तरों पर इस विषय पर चर्चा जारी रही।
कानूनी लड़ाई भी लंबे समय तक चली। भूमि-स्वामित्व से जुड़े मुकदमे कई दशकों तक अलग-अलग अदालतों में विचाराधीन रहे। 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया तथा मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए अलग से पाँच एकड़ भूमि दिए जाने का आदेश दिया। अदालत ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि 1992 में ढहाया जाना कानून के विरुद्ध था, और यह घटना न्यायिक दृष्टि से भी गंभीर मानी गई। इस फैसले ने वर्षों से चली आ रही संपत्ति विवाद की कानूनी प्रक्रिया को समाप्त किया।
आज 6 दिसंबर को मुस्लिम समाज इसे गमगीन और धार्मिक स्मृति-दिवस के रूप में मनाता है। मस्जिदों में कुरानखानी और फातिहा की जाती है, परिवारों में खामोशी का माहौल रहता है और लोग दुआ के साथ दिन बिताते हैं।
यह दिन केवल एक घटना की याद नहीं, बल्कि एक गहरे दर्द और ऐतिहासिक स्मृति का प्रतीक माना जाता है। समाज के लोग इस दिन शांति, सद्भाव और अमन की दुआ करते हुए अपनी धार्मिक परंपरा का पालन करते हैं।




